-श्यामसुंदर बी मौर्या
बात तब की है जब बाबरी मस्जिद नहीं टूटी थी, अडवानी की रथ-यात्रा शुरू हो तो चुकी थी, मगर गाँवों में किसी को कुछ खास पता नहीं था। हिन्दू मुस्लिम सब मिलकर रहा करते थे। मेरे गाँव में भी वही माहौल था...बेहद खूबसूरत। मैंनें अपने सिर पर अपने गाँव में एकमात्र बन रही मस्जिद के लिए मिट्टी ढोयी है। बदले में वो लोग भी वैसा ही करते थे। जब बात छप्पर चढ़ाने की आती थी तो कोई हिंदू मुस्लिम नहीं देखता था। हिन्दू-मुस्लिम के मेल-मिलाप की जड़ें कितनी गहरी थी, मेरे परिवार में घटित एक वाक्या बताता हूँ।
मेरे फूफा मरने के पहले कहा करते थे, मेरी तो आल-औलाद अपनी हैं नहीं, मैं जब मरुं तो मुझे अयोध्या में फूंकना। उनका विश्वास था कि इससे उनकी आत्मा नहीं भटकेगी, स्वर्ग मिलेगा। आखिर वो घड़ी आयी। रात ठीक 12 बजे वो मरे थे। घर में उस समय सबसे बड़ा जवान मैं ही था, जो कक्षा 6 में पढ़ता था। माँ ने कहा उनकी आखरी इच्छा पूरी ही करनी है। इत्तेफ़ाक़ से पैसे भी समय से मिल गये थे, मगर इंतजाम करेगा कौन? इतने रिश्तेदारों को बुलाना जमा करना, बस बुक करना और भी तमाम काम। मगर गाँव में एकता इतनी जबर्दस्त थी कि सभी ने आधी रात ही काम बांट लिये।
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अनारुल्लाह शहर निकल पड़े बस लाने, मुहम्मद खलील दौड़ पड़े पंडित और सामान लाने...और भी दर्जनों नाम। मैं भी आधी रात में ही निकल गया रिश्तेदारों को इकट्ठा करने। सबने मिलकर ऐसा काम किया कि सूर्योदय तक सब इकट्ठा भी हो गये और दोपहर तक अयोध्या भी पहुँच गये और शाम तक पूरा किर्या-कर्म करके घर वापसी भी। पता ही नहीं चला कौन हिंदू है कौन मुस्लिम। साथ में जो कभी ये काम किये हों वो जानते हैं इसमें कितना टिट्टिमा पंडित कराते हैं मगर...
आगे अडवानी की रथ-यात्रा और दीवारों पर पुते नारे...लोगों को बैचेन करने लगे...लोग कानाफूसी करते ...डरते...गजब घबराहट दिखाई देती लोगों के चेहरे पर। ऐसा लगता कुछ टूट रहा है। जैसे जंग छिड़ने वाली है अपनों के ही बीच...और फिर वो दिन आ गया, बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी। पुलिस और दरोगा की गश्त बढ़ गयी। यहाँ तक कि रास्तों पर चार लोगों को बैठ-बतियाने को भी मना किया गया। खैर हमारे यहाँ तो कुछ नहीं हुआ...मगर पुरे देश में दंगे हुए।
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ये इसलिए लिखना पड़ा है आज कि सोशल मीडिया पर कुछ लोग बहुत बवाल काट रहें हैं। यूपी की एक घटना पर और इसमें घी कौन-कौन डाल रहें हैं, पहचान करें ऐसे लोगों की...बहुत जरूरी है। यूपी चुनाव तक ये किसी भी हद्द तक जा सकते हैं। इनकी ताकत भी बहुत है, जो लोग पूरे देश में दंगे करा सकते हैं उनके लिए ज्यादा मुश्किल नहीं है। मगर देखना है इनकी काठ की हांडी कितनी बार चढ़ती है क्योंकि मंदिर वाला वो खूनी मुद्दा तो ये खुद जानते हैं नहीं चलेगा। ये कुछ नया लाएंगे। कुछ तो प्लान जरूर करेंगे। होशियार रहें इन गद्दारों से और संयमित रखें खुद को...अधिक से अधिक।
बात तब की है जब बाबरी मस्जिद नहीं टूटी थी, अडवानी की रथ-यात्रा शुरू हो तो चुकी थी, मगर गाँवों में किसी को कुछ खास पता नहीं था। हिन्दू मुस्लिम सब मिलकर रहा करते थे। मेरे गाँव में भी वही माहौल था...बेहद खूबसूरत। मैंनें अपने सिर पर अपने गाँव में एकमात्र बन रही मस्जिद के लिए मिट्टी ढोयी है। बदले में वो लोग भी वैसा ही करते थे। जब बात छप्पर चढ़ाने की आती थी तो कोई हिंदू मुस्लिम नहीं देखता था। हिन्दू-मुस्लिम के मेल-मिलाप की जड़ें कितनी गहरी थी, मेरे परिवार में घटित एक वाक्या बताता हूँ।
मेरे फूफा मरने के पहले कहा करते थे, मेरी तो आल-औलाद अपनी हैं नहीं, मैं जब मरुं तो मुझे अयोध्या में फूंकना। उनका विश्वास था कि इससे उनकी आत्मा नहीं भटकेगी, स्वर्ग मिलेगा। आखिर वो घड़ी आयी। रात ठीक 12 बजे वो मरे थे। घर में उस समय सबसे बड़ा जवान मैं ही था, जो कक्षा 6 में पढ़ता था। माँ ने कहा उनकी आखरी इच्छा पूरी ही करनी है। इत्तेफ़ाक़ से पैसे भी समय से मिल गये थे, मगर इंतजाम करेगा कौन? इतने रिश्तेदारों को बुलाना जमा करना, बस बुक करना और भी तमाम काम। मगर गाँव में एकता इतनी जबर्दस्त थी कि सभी ने आधी रात ही काम बांट लिये।
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