- डॉ ओम सुधा
मेरे गांव घोरघट से महज एक किलोमीटर की दूरी पर है एक गांव मुरला मुसहरी. दलित बस्ती है. एक जाति होती है मुसहर. पचास साठ घर हैं. आबादी होगी यही कोई तीन सौ के आसपास.. उस गांव में रहता है मोहन सदा... मोहन सदा कभी स्कूल नहीं गया, उसके बच्चे भी नहीं गए, बच्चे क्या उसके पूरे खानदान में कोई स्कूल गया ही नहीं...मोहन कहता है कि "उ जे हम अछूत के याहाँ खाना खाये हैं ऊके हमरे हिया भी बुलाओ, हम भी खाना खिलाएंगे", वो आपको चिट्ठी लिखना चाहता है अमित शाह जी .. दर्द मोहन सदा का है शब्द बस मेरे हैं...
आदरणीय अमित शाह जी,
जबसे आपको किसी दलित के यहां चमकती हुए थाली में खाना खाते हुए देखा है, जाने क्यों मुझे भी महसूस होने लगा है कि जल्दी ही हमारी किस्मत भी चमक सकती है.. हम मुसहर जाति के हैं. हमारी बस्ती आबादी से हटाकर बसाई गई है. हमारे गांव में बिजली भी नहीं है. एक सरकारी सामुदायिक भवन है, जो चारों तरफ से खुला हुआ है. उसको स्कूल बना दिया है. मैडम आती हैं पढ़ाने. पर हम अपने बच्चे को हर दिन नहीं भेज पाते. फिर सूअर का ध्यान कौन रखेगा? मैं तो भैंस चराने निकल जाता हूँ. मेरे गांव में अस्पताल भी नहीं है. पिछले दिनों गांव की औरत पेट दर्द से मर गयी थी. बरसात का दिन था वो, हमारा गांव टापू बन जाता है बरसात में, वैसे आम दिनों में भी हमारे गांव पहुंचने का कोई कच्चा रास्ता भी नहीं है। गांव की एक महिला को पेट में दर्द हो गया, हम डॉक्टर के यहां नहीं ले जा पाए. खाट पर लिटाकर पानी पार करा रहे थे, रस्ते में दम तोड़ गई।
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अमित शाह जी, पर एक खुशखबरी है. चाहें तो आप इसे यूपी चुनाव में भंजा सकते हैं. खुशखबरी ये है कि मेरा गांव भी अब डिजिटल हो गया है. मंटू सदा दिल्ली कमाने गया था, एक ठो फोन लेकर आया है. चाहें तो मोदी जी यूपी की रैली में दोनों हाथ उठा-उठा के गरज-गरज के अपना छप्पन इंची का सीना दिखा के बोल सकते हैं कि - "भाइयों एवं बहनों, देखो हमने पूरे भारत को डिजिटल कर दिया, मुरला मुसहरी में अब मोबाइल फोन पहुंच गया. देश के दलितों को हमने कहाँ से कहाँ पंहुचा दिया".
जानते हैं अमित शाह जी, आपको दलित बस्ती में खाना खाते देखकर हमारा सीना चौड़ा हो गया. अब हमें यकीन हो गया है कि अब कोई खैरलांजी और मिर्चपुर नहीं होगा. अब किसी रोहित वेमुला की ह्त्या नहीं की जायेगी, अब किसी दलित दूल्हे को घोड़े पर बैठकर भारत जाने से कोई नहीं रोक पाएगा. यकीन तो हमें बहुत पहले से था, जब आपने बिहार चुनाव का बिगुल आंबेडकर जयंती की दिन फूंका था. पर ये मीडिया वाले भी न देखो कितनी गन्दी बातें करते हैं, आपके बारे में कितना दुष्प्रचार करते हैं. कहते हैं कि भाजपा आरक्षण विरोधी है, कहते हैं कि दलितों के कल्याण के लिए होने वाले बजट में आपने कटौती की है. एक बार आप इनके मुंह पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करके क्यों नहीं कह देते की सब झूठ है, इनका मुंह भी बंद हो जाएगा.
जिस तरह से आप लोगों ने पांचजन्य में बाबा साहब के बारे में बताया कि बाबा साहब भी चाहते थे की भारत हिन्दू राष्ट्र बने, छपा है- सुनकर हमें तसल्ली हुयी कि अब हमे मंदिर में प्रवेश करने पर कोई नहीं पीटेगा. थोड़ा बहुत पीटना पिटाना तो चलता है ये मीडिया वाले खामखां तिल का ताड़ करते रहते हैं.
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सच कहें तो आपको एक दलित के घर में खाना खाते देख कर हमारी सारी गलतफहमियां दूर हो गयीं, वैसे ग़लतफ़हमी तो उसी दिन दूर हो गयी थी जिस दिन आपने सिंहस्थ मेले में समरसता वाला सामूहिक स्नान किया था. सच कहता हूँ मन अंदर तक स्नेह से समरस में भीगकर सराबोर हो गया था. सब कहते रहे की दलित साधुओं को पीछे बिठाया पर वो समझते नहीं कि साथ तो बिठाया.
हम तो आपके स्नेह में डूबे हुए हैं, सच पूछिए तो हमें अजीब से आध्यात्मिक सुख की अनुभूति हो रही है.
पर, आदरणीय अमित शाह जी, आपको हमने ये चिठ्ठी आपको अपने यहां खाने की दावत देने के लिए लिखी है. कोई बता रहा था कि यूपी में आपने जिसके यहाँ खाना खाया वहाँ बर्तन और पानी अपना लेकर गए थे. यहां भी लेकर आइएगा क्योंकि हमाये यहां अल्मुनियम का पचका हुआ एक थाली और प्लास्टिक की एक कटोरी है, आप उसमे खाएंगे तो अच्छा नहीं लगेगा और अख़बार टीवी में फोटो भी तो देखने में अच्छा लगना चाहिए. पानी तो आपको लेकर आना हो पड़ेगा अमित जी, क्योंकि हमारे यहां एक ही चांपाकल है जिससे आर्सेनिक वाला पानी आता है. गर्मियों में तो सूखा ही रहता और प्रायः खराब. आप आर्सेनिक वाला पानी पिएंगे तो हमें अच्छा नहीं लगेगा.
क्योंकि आप हम लोगों के लिए अवतार बनकर आये हैं. शहंशाह बनकर...मज़ा देखिये आपका नाम भी तो अमित है, अमित जी बोलने से कभी कभी अमिताभ बच्चन वाला फीलिंग आता है. जैसे अमिताभ बछचन शहंशाह फिल्म में हर ज़ुल्म मिटाने को मसीहा बनकर आता था वैसे ही आप हम दलितों की ज़िंदगी में मसीहा बनकर आ रहे हैं.. आप जब हमारे गांव आएंगे तो हम लोंग बैकग्राउंड से यही धुन बजाएंगे...
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" हर ज़ुल्म मिटाने को एक मसीहा निकलता है, जिसे लोग शहंशाह कहते हैं, शहंशाह, शहंशाह शहंशाह ..."
अच्छी बात ये है कि आप बर्तन और पानी भले ही अपना लेकर आएंगे पर खाना तो हमारे घर का ही बना खाएंगे. हम मूस खाते हैं, घोंघा खाते हैं. तेल थोड़ा मंहगा है इसलिए प्रायः उबाल कर नमक मिर्च के साथ खा लेते हैं. पर आप जिस दिन आएंगे उस दिन हम उसे अच्छे से तेल में फ्राई करके बनाएंगे- "मूस कढ़ी" वैसे आप चाहें तो घोंघा भी खा सकते हैं, पर अभी नदी सूखी पड़ी है सो हम खेत से मूस खोद कर ले आएंगे. मेरी पत्नी बहुत बढ़िया और स्वादिष्ट बनाती है. साथ खाएंगे, बड़ा मज़ा आएगा. अख़बार में फोटो भी छपेगी और हो सकता है आपके बहाने हमारे गांव में बिजली, स्कूल सड़क और अस्पताल भी बन जाए....सो आइएगा जरूर.
कुछ लोग तो ये कहकर भी आपकी कोशिश को बदनाम कर रहे हैं कि जिसके यहां आपने खान खाया वो दलित नहीं ओबीसी है, बिंद जाति,
पर अमित साह जी, हम इनके झांसे में आने वाले नहीं हैं...
क्योंकि हमें पता है आप ही हो हमारे मसीहा...हमारे शहंशाह ...
शहंशाह ...शहंशाह ...शहंशाह....
आपका अपना
मोहन सदा एवं मुरला मुसहरी की जनता....
[अगर आप भी लिखना चाहते हैं कोई ऐसी चिट्ठी, जिसे दूसरों तक पहुंचना चाहिए, तो हमें लिख भेजें- merekhatt@gmail.com. हमसे फेसबुक, ट्विटर और गूगलप्लस पर भी जुड़ें]
मेरे गांव घोरघट से महज एक किलोमीटर की दूरी पर है एक गांव मुरला मुसहरी. दलित बस्ती है. एक जाति होती है मुसहर. पचास साठ घर हैं. आबादी होगी यही कोई तीन सौ के आसपास.. उस गांव में रहता है मोहन सदा... मोहन सदा कभी स्कूल नहीं गया, उसके बच्चे भी नहीं गए, बच्चे क्या उसके पूरे खानदान में कोई स्कूल गया ही नहीं...मोहन कहता है कि "उ जे हम अछूत के याहाँ खाना खाये हैं ऊके हमरे हिया भी बुलाओ, हम भी खाना खिलाएंगे", वो आपको चिट्ठी लिखना चाहता है अमित शाह जी .. दर्द मोहन सदा का है शब्द बस मेरे हैं...
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जबसे आपको किसी दलित के यहां चमकती हुए थाली में खाना खाते हुए देखा है, जाने क्यों मुझे भी महसूस होने लगा है कि जल्दी ही हमारी किस्मत भी चमक सकती है.. हम मुसहर जाति के हैं. हमारी बस्ती आबादी से हटाकर बसाई गई है. हमारे गांव में बिजली भी नहीं है. एक सरकारी सामुदायिक भवन है, जो चारों तरफ से खुला हुआ है. उसको स्कूल बना दिया है. मैडम आती हैं पढ़ाने. पर हम अपने बच्चे को हर दिन नहीं भेज पाते. फिर सूअर का ध्यान कौन रखेगा? मैं तो भैंस चराने निकल जाता हूँ. मेरे गांव में अस्पताल भी नहीं है. पिछले दिनों गांव की औरत पेट दर्द से मर गयी थी. बरसात का दिन था वो, हमारा गांव टापू बन जाता है बरसात में, वैसे आम दिनों में भी हमारे गांव पहुंचने का कोई कच्चा रास्ता भी नहीं है। गांव की एक महिला को पेट में दर्द हो गया, हम डॉक्टर के यहां नहीं ले जा पाए. खाट पर लिटाकर पानी पार करा रहे थे, रस्ते में दम तोड़ गई।
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जिस तरह से आप लोगों ने पांचजन्य में बाबा साहब के बारे में बताया कि बाबा साहब भी चाहते थे की भारत हिन्दू राष्ट्र बने, छपा है- सुनकर हमें तसल्ली हुयी कि अब हमे मंदिर में प्रवेश करने पर कोई नहीं पीटेगा. थोड़ा बहुत पीटना पिटाना तो चलता है ये मीडिया वाले खामखां तिल का ताड़ करते रहते हैं.
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सच कहें तो आपको एक दलित के घर में खाना खाते देख कर हमारी सारी गलतफहमियां दूर हो गयीं, वैसे ग़लतफ़हमी तो उसी दिन दूर हो गयी थी जिस दिन आपने सिंहस्थ मेले में समरसता वाला सामूहिक स्नान किया था. सच कहता हूँ मन अंदर तक स्नेह से समरस में भीगकर सराबोर हो गया था. सब कहते रहे की दलित साधुओं को पीछे बिठाया पर वो समझते नहीं कि साथ तो बिठाया.
हम तो आपके स्नेह में डूबे हुए हैं, सच पूछिए तो हमें अजीब से आध्यात्मिक सुख की अनुभूति हो रही है.
पर, आदरणीय अमित शाह जी, आपको हमने ये चिठ्ठी आपको अपने यहां खाने की दावत देने के लिए लिखी है. कोई बता रहा था कि यूपी में आपने जिसके यहाँ खाना खाया वहाँ बर्तन और पानी अपना लेकर गए थे. यहां भी लेकर आइएगा क्योंकि हमाये यहां अल्मुनियम का पचका हुआ एक थाली और प्लास्टिक की एक कटोरी है, आप उसमे खाएंगे तो अच्छा नहीं लगेगा और अख़बार टीवी में फोटो भी तो देखने में अच्छा लगना चाहिए. पानी तो आपको लेकर आना हो पड़ेगा अमित जी, क्योंकि हमारे यहां एक ही चांपाकल है जिससे आर्सेनिक वाला पानी आता है. गर्मियों में तो सूखा ही रहता और प्रायः खराब. आप आर्सेनिक वाला पानी पिएंगे तो हमें अच्छा नहीं लगेगा.
क्योंकि आप हम लोगों के लिए अवतार बनकर आये हैं. शहंशाह बनकर...मज़ा देखिये आपका नाम भी तो अमित है, अमित जी बोलने से कभी कभी अमिताभ बच्चन वाला फीलिंग आता है. जैसे अमिताभ बछचन शहंशाह फिल्म में हर ज़ुल्म मिटाने को मसीहा बनकर आता था वैसे ही आप हम दलितों की ज़िंदगी में मसीहा बनकर आ रहे हैं.. आप जब हमारे गांव आएंगे तो हम लोंग बैकग्राउंड से यही धुन बजाएंगे...
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" हर ज़ुल्म मिटाने को एक मसीहा निकलता है, जिसे लोग शहंशाह कहते हैं, शहंशाह, शहंशाह शहंशाह ..."
अच्छी बात ये है कि आप बर्तन और पानी भले ही अपना लेकर आएंगे पर खाना तो हमारे घर का ही बना खाएंगे. हम मूस खाते हैं, घोंघा खाते हैं. तेल थोड़ा मंहगा है इसलिए प्रायः उबाल कर नमक मिर्च के साथ खा लेते हैं. पर आप जिस दिन आएंगे उस दिन हम उसे अच्छे से तेल में फ्राई करके बनाएंगे- "मूस कढ़ी" वैसे आप चाहें तो घोंघा भी खा सकते हैं, पर अभी नदी सूखी पड़ी है सो हम खेत से मूस खोद कर ले आएंगे. मेरी पत्नी बहुत बढ़िया और स्वादिष्ट बनाती है. साथ खाएंगे, बड़ा मज़ा आएगा. अख़बार में फोटो भी छपेगी और हो सकता है आपके बहाने हमारे गांव में बिजली, स्कूल सड़क और अस्पताल भी बन जाए....सो आइएगा जरूर.
कुछ लोग तो ये कहकर भी आपकी कोशिश को बदनाम कर रहे हैं कि जिसके यहां आपने खान खाया वो दलित नहीं ओबीसी है, बिंद जाति,
पर अमित साह जी, हम इनके झांसे में आने वाले नहीं हैं...
क्योंकि हमें पता है आप ही हो हमारे मसीहा...हमारे शहंशाह ...
शहंशाह ...शहंशाह ...शहंशाह....
आपका अपना
मोहन सदा एवं मुरला मुसहरी की जनता....
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