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एक भैंसे की व्यथा, काला अक्षर भैंस बराबर ही क्यों? आखिर गाय कौन सी यूनिवर्सिटी में पढ़ी है?

- संजीव जायसवाल संजय

आदरणीय सम्पादक जी, सादर प्रणाम, 

मैं कालू राम अध्यक्ष, अखिल भारतीय भैंसा संघ इस पत्र के माध्यम से अपने भैंसा समुदाय की व्यथा कथा सुनाना चाहता हूँ. इस देश में रंगभेद की कुरीति का सबसे बड़ा शिकार हम लोग ही हुए है लेकिन किसी ने भी कभी हमारी कोई सुध नहीं ली. अब देखिये अक्खा इंडिया दूध पीता है हमारी घरवालियों का और जयकारा बोला जाता है गऊ माता का. हमारी भैसों को माता तो दूर कोई मौसी या बुआ तक नहीं बोलता. गली-गली गो-रक्षक मुस्तैद हैं. गऊ माता की रक्षा के लिए वे प्राण ले भी लेंगे और दे भी देंगे लेकिन भैंस रक्षक शब्द तो किसी की डिक्शनरी में ही नहीं है. दूध पियें भैंस का और रक्षा करें गऊ की इससे बड़ी अनीति और क्या हो सकती है?

हम सब गांधीजी की तरह अहिंसा के पुजारी हैं शायद इसीलिए इस देश में उनकी ही तरह हमारी भी कोई पूछ नहीं है. गाय लात मारेगी तो बड़े प्रेम से कहेंगे कि दुधारू गाय की लात खानी ही पड़ती है. उसका बेटा सांड छुट्टा घूमता है और राह चलतों को पटक-पटक कर मारता है लेकिन उसे भी कोई कुछ नहीं कहता.  बड़े खानदान का चिराग जो ठहरा. इसके उलट आपने कभी किसी भैस को दुलत्ती मारते नहीं सुना होगा लेकिन हमारी शराफत की तारीफ करने के बजाय अक्ल बड़ी या भैंस कहकर मजाक उड़ाया जाता है. मैं पूछता हूँ कि गाय के पास कितनी बडी अकल होती है जो उसे पूजनीय बना देती है? यही नहीं हमारे रंग का यह यह कहकर भी मजाक उड़ाया जाता है की करिया अक्षर भैंस बराबर. ठीक है हम लोग अनपढ़ ही सही, मगर गाय कौन सी यूनिवर्सिटी में पढ़ी है, कोई बता सकता है?

विज्ञान तक साबित कर चुका है कि जीव जंतुओं को तो छोड़ो पेड़-पौधे तक संगीत का आनंद लेते हैं. लेकिन यहाँ भी हम लोग रंग भेद का शिकार हैं. स्कूलों तक में पढ़ाया जाता है कि भैंस के आगे बीन बजाओ भैस खड़ी पगुराय. मैं जानना चाहता हूँ कि क्या किसी ने गाय को बीन के आगे डांस करते देखा है? अगर नहीं तो केवल हमारा मजाक ही क्यों उड़ाया जाता है?  

और तो और माल ढोते हैं हम लेकिन गाडी का नाम होगा बैलगाड़ी. अगर इसका ही नाम भैंसागाड़ी रख देते तो हमारे जख्मों में कुछ मरहम लग जाता. लेकिन नहीं, हम काले है इसलिए हमारी कोई पूछ नहीं. कहाँ तक कहें पूंछ तलक में भी भेदभाव किया जाता है. यमराज के साथ अंतिम यात्रा पर ले जाने के लिए आते हैं हमारे भाई लेकिन समझाया जाता है कि वैतरणी गऊ की पूछ पकड़ कर पार कर पाओगे. इसलिए गऊ दान करो. अरे, जब जा रहे हो भैंसा पर बैठकर जो कुछ भी पार कराना है भैंसा ही पार कराएगा. इसलिए भैंसा दान होना चाहिए लेकिन गाय ने यहाँ भी हमारा हक छीन लिया. 

हमारे साथ भेदभाव तो आजादी के बाद से ही शुरू हो गया था. सबसे पुरानी पार्टी ने अपना चुनाव चिन्ह रखा ‘दो बैलों की जोड़ी’. वह जब्त हो गया तो ‘गाय-बछड़ा’ ढूँढ लाए. भैंसों की जोड़ी या भैंस और पड़वा के बारे में सोचा तक नहीं. आज की सबसे बड़ी पार्टी भी कोई कम नहीं. कीचड़ में दिन भर लोट लगाएं हम और चुनाव चिन्ह बना लिया कीचड़ में कभी कभार खिलने वाले फूल को. अगर हमारे बारे में सोचते तो हम संख्याबल पर हाथी को भी तगड़ी टक्कर दे देते. और तो और हमारी पीठ पर सवारी कर, हमारा दूध बेच माल काटने वालों ने भी हमारा ध्यान नहीं रखा और चुनाव चिन्ह ले आए साइकिल. 

कहाँ तक गिनाएं? इस अनीति की लिस्ट बहुत लंबी है. हम लोगों ने बहुत सहा है लेकिन अब और  सहन नहीं होता. छोटे छोटे लोग कुकुरमुत्ते की तरह अपना-अपना दल बना रहे हैं और बड़े बड़े सत्ताधारी उनके आगे दुम हिला रहे हैं. हमारे पास तो शक्ति भी है और संख्या भी. बस कमी है तो एकता की इसलिए हमने अखिल भारतीय भैंसा संघ की स्थापना की है. देश भर के भैंसे हमारे झंडे के तले जमा हो रहे हैं. हमारी मांगें हैं कि हम सदियों से शोषित व वंचित रहे हैं इसलिए 1. हमें शोषित वर्ग का विशेष दर्जा प्रदान किया जाए 2. हमारे संघ को मान्यता दी जाए 3. भैंस की पीठ पर सवारी करना संज्ञय अपराध घोषित किया जाए 4. जाति सूचक मुहावरों का प्रयोग पूर्णतया प्रतिबंधित किया जाए 5. प्रत्येक गांव में भैंस सेवा केंद्र खोलकर भैंस रक्षक तैनात किए जाएं और 6. हमारे एक प्रतिनिधि को मंत्रिमंडल में शामिल किया जाए क्योंकि  हम गधों से हर तरह  से योग्य है.

अगर इतना सब संभव न हो सके तो केवल हमें शोषित वर्ग का विशेष दर्जा दिलवा दीजिए. फिर देखिएगा सारे सफेद खद्दरधारी हम कालों के आगे न केवल अपनी दुम हिलाएंगे बल्कि हमारे गोबर से घर लीप भैंस मूत्र का पान करने हेतु कटाझुज्झ मचा देंगे.

शेष कुशल है. शुभकामनाओं सहित,

आपके आशीर्वाद का आकांक्षी,

कालूराम

अध्यक्ष, अखिल भारतीय भैंसा संघ 

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