-आशुतोष तिवारी
डियर दोस्त !
वह मेरे ठीक बगल में बैठता था। उस स्पेस में हम दोनों की मौजूदगी उन 'उपेक्षित कविताओं' की तरह थी जिन्हें मुश्किल या दुरुह समझ कर दरकिनार कर दिया जाता है। हमे जो चीजें अजीब लगती है वह भीतर रहस्य का भाव तो जगाती है पर हमें प्रेम नही करने देतीं। हमे किताबों से प्रेम था, और फिल्मों से। सिनेमा और किताबें उन्हें समझने की कोशिश करती हैं जिन्हें हम मुश्किल और जादुई समझते हैं।
हम दोनों की रुधिरि शिराएं सिनेमा के आरेख और किताबों के पन्नो से पोषित होती रहीं। हमारा अकेलापन कला की शागिर्दी में हम भूले रहे। सालों बाद जब स्कूल खत्म हो गया, सब अपनी दुनिया बसाने की जद्दोजहद में आगे बढ़ गए। कोई अफसर बना, कोई बड़ा बिजनेसमैन और किसी ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रशाशन संभाले। मुझे लगा, दुनिया उसके दरवाजे पर अब तक दस्तक दे चुकी होगी।
शायद, मैं गलत था। किताबें और सिनेमा अगर खुराक बन जाये तो आदमी स्थाई रूप से आवारा हो जाता है। उसकी इंस्टाग्राम आईडी यूं अचानक दिखी और फिर लगा कि कुछ भी कहाँ बदला है। टूटे हुए नायक की तरह बैटमैन बन कर दुनिया को दुखो से निवारने का मिथ्या मोह और फिर सब कुछ छूट जाने पर ग्रेट गैट्सबी बन जाने की पीड़ा- सब कुछ वहाँ 'न बदलने ' के ईमानदार इश्तहार की तरह चिपका हुआ था।
लगा वह आईडी नही है, सालों पहले के दोस्त की उंगलियां है, जो कह रही हैँ- सिनेमा और किताबें अगर खुराक बन जाये तो अकेलापन आदमी का कभी पीछा नही छोड़ता। खूब प्रेम ! तुम्हे दोस्त❤️